ठोकर के बिना लोग गुज़र क्यूँ नहीं जाते,
पत्थर हो मुकाबिल तो ठहर क्यूँ नहीं जाते.
इस शहर के जुगनू भी छलावे है नज़र के,
फिर लोग सर-ए-शाम ही घर क्यूँ नहीं जाते.
तुमने गिराया है मुझे अपनी नजर से,
तुम मेरी निगाहों से उतर क्यूँ नहीं जाते.
मर-मर के जिए जाते है सड़कों के किनारे,
मरना ही ज़रूरी है तो मर क्यूँ नहीं जाते.
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