खुद को पढता हुआ छोड़ देता हूँ
मैं रोज़ एक वर्क मोड़ देता हूँ
इस क़दर ज़ख्म है मेरी निगाहों में
मैं रोज़ एक आइना तोड़ देता हूँ
कांपते होंठ ....भीगी हुई सी पलकें
अक्सर बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ
रेत के घर बना बना के मैं
जाने क्यों खुद ही तोड़ देता हूँ"
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